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ज़िक्र मेरा जो बुराई में भी करता होगा / मोहम्मद इरशाद
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ज़िक्र मेरा जो बुराई में भी करता होगा
गैर तो होगा नहीं वो कोई अपना होगा
चाँद को पाने की ज़िद उसकी बज़ा है लेकिन
वो कोई दाना नहीं होगा तो बच्चा होगा
इक कदम चलके जो रूक जाता है तन्हा अक्सर
अपने साये यकीनन ही वो डरता होगा
रू-ब-रू होने से क्यूँ डरते हो उससे आख़िर
दरमियाँ उसके तेरे आज भी पर्दा होगा
वक्त निकला तो तुम्हें कुछ भी ना होगा हासिल
वक्त रहते तुम सँभल जाओ तो अच्छा होगा
ज़ुस्तजु ले के गई उसको ये जाने किसकी
मारा-मारा वो यूँ ही शहर में फिरता होगा
रहते ‘इरशाद’के महफिल मे वो छाए कैसे
उसने ऐसा तो किसी ख़्वाब में देखा होगा