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ज़िक्र मेरा ब-बदी भी उसे मंज़ूर नहीं / ग़ालिब

ज़िक्र मेरा ब-बदी भी उसे मनज़ूर नहीं
ग़ैर की बात बिगड़ जाए तो कुछ दूर नहीं

व`दह-ए सैर-ए गुलिसतां है ख़वुशा ताल-ए शौक़
मुज़हदह-ए क़तल मुक़ददर है जो मज़कूर नहीं

शाहिद-ए हसती-ए मतलक़ की कमर है `आलम
लोग कहते हैं कि है पर हमें मनज़ूर नहीं

क़तरह अपना भी हक़ीक़त में है दरया लेकिन
हम को तक़लीद-ए तुनुक-ज़रफ़ी-ए मनसूर नहीं

हसरत अय ज़ौक़-ए ख़राबी कि वह ताक़त न रही
इशक़-ए पुर-अरबदह की गूं तन-ए रनजूर नहीं

मैं जो कहता हूँ कि हम लेंगे क़ियामत में तुमहें
किस र'ऊनत से वह कहते हैं कि हमहूर नहीं

ज़ुलम कर ज़ुलम अगर लुतफ़ दरेग़ आता हो
तू तग़ाफ़ुल में किसी रनग से मनज़ूर नहीं

साफ़ दुरदी-कश-ए पैमानह-ए जम हैं हम लोग
वाए वह बादह कि अफ़शरदह-ए अनगूर नहीं

हूं ज़ुहूरी के मुक़ाबिल में ख़फ़ाई ग़ालिब
मेरे दावे पह यह हुजजत है कि मशहूर नहीं