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ज़िक्र हर सुब्ह ओ शाम है तेरा / शाकिर 'नाजी'

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ज़िक्र हर सुब्ह ओ शाम है तेरा
विर्द-ए-आशिक कूँ नाम है तेरा

मत कर आज़ाद दाम-ए-जुल्फ़ सीं दिल
बाल बाँधा ग़ुलाम है तेरा

लश्‍कर-ए-ग़म ने दिल सीं कूच किया
जब से इस में मक़ाम है तेरा

जाम-ए-मय का पिलाना है बे-रंग
शौक़ जिन कूँ मुदाम है तेरा

आज ‘नाजी’ से रम न कर ऐ शोख़
देख मुद्दत सीं राम है तेरा