ज़िन्दगानी के भी कैसे-कैसे मंज़र हो गए / बलजीत सिंह मुन्तज़िर
ज़िन्दगानी के भी कैसे-कैसे मंज़र<ref>हालात, परिदृश्य</ref> हो गए ।
बे-सरोसामाँ<ref>सामान रहित</ref> तो थे ही, अब तो बेघर हो गए ।
तुमसे मिलने पर बड़े आशुफ़्तासर<ref>खुश, आनन्दित</ref> थे उन दिनों,
तुमसे बिछड़े तो हमारे दर्द बेहतर हो गए ।
एक क़तरे<ref>बून्द</ref> भर की आँखों में थी उनकी हैसियत,
अश्क<ref>आँसू</ref> जब पलकों से निकले तो समन्दर हो गए ।
कितनी बे-परवाह उड़ानों में थी पहले ज़िन्दगी,
जब ज़मीँ पाई परिन्दे दिल के बे-पर<ref>पंख रहित</ref> हो गए ।
मौसम दयारे यार<ref>माशूक का घर</ref> का बदला भी तो कुछ इस तरहा,
जो ख़ुद मिसालें<ref>उदाहरण</ref> थे बहारों की वो पतझर हो गए ।
आशनाई<ref>मित्रता</ref> के मुरव्वत<ref>कृपा, दया</ref> दौर में यूँ भी हुआ,
बे-मुरव्वत<ref>कृपाहीन</ref> लोग भी हमदर्द<ref>दुःख के साथी</ref> अक्सर हो गए ।
बे-पनाह<ref>आश्रयहीन</ref> तन्हाइयों की शाख़<ref>टहनी</ref> से लिपटे हुए,
जो भी गुल उम्मीद के थे नामे दिलबर<ref>माशूक के नाम</ref> हो गए ।
कितने तो अरमान दिल में सीfपयों से बन्द थे,
जब खुली राहें वफ़ाओं की तो गौहर<ref>मोती</ref> हो गए ।
थे बहुत ज़रख़ेज़<ref>उपजाऊ</ref> सपने, सब्ज़<ref>हरे-भरे</ref> थे एहसास भी
पर हक़ीक़त के क़हत<ref>अकाल, दुfर्भक्ष</ref> से सब ही बंजर हो गए ।।