भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी-ज़िन्दगी-1 / अर्सेनी तर्कोव्स्की
Kavita Kosh से
अपशकुनों को मैं नहीं मानता, न मुझे है
अमंगल की आशंका । बदनामी हो या ज़हर, कोई शै
मुझे डरा नहीं सकतीं । मौत नाम की कोई चीज़ है ही नहीं ।
हर कोई अमर है । हर चीज़ अमर है ।
मौत सत्रह की उम्र में हो या सत्तर की
इसमें घबराना क्या । जो कुछ है यहीं है आज और अभी, रौशनी यहीं पर है;
न मृत्यु कहीं है न अन्धकार ।
हम सब मौजूद हैं समुद्रतट पर;
जब मछलियों की तरह तैरता अमरत्व का झुण्ड
इधर से गुज़रेगा मैं ही फेंकूँगा जाल ।
(१९४२)
(रूसी मूल से किटी हंटर-ब्लेअर और वर्जीनिया राउण्डिग के अँग्रेज़ी अनुवाद से अनूदित)