ज़िन्दगी एक रेलवे स्टेशन है / आरती मिश्रा
मरीना त्स्विताएवा को याद करते हुए
1.
तुम्हें नहीं देखा पर जाना
और महसूस कर रही हूँ
जैसे ओस का होना
मोती-सा
बेशक़ीमती होती हैं स्मृतियाँ
हमेशा साथ रहती हैं
कुछ रेखाएँ कुछ अक्स कुछ शब्द
जेहन में बहते रहते हैं
जैसे धमनियों में रक्त बहता है
स्पन्दन, धडक़नों को हवा देता है जिस तरह
मरीना! न होकर भी तुम्हारा होना
ऐसा ही है
2.
मैं महसूस करना चाहती हूँ
तुम्हारी एक-एक वेदना
जहाँ से कविता सिरजती रही
उस जज़्बे को, जिसने वनवासों को फलाँगते
पार की जीवनयात्रा
काग़ज़ क़लम भी सँभाले हुए
कठिन है उस क्रूर भूख की तडप
जिसने कब किसको छोड़ा
तुम्हें आख़िर क्यूँ छोड़ती
ख़ूनी पंजों में दबाए प्रियजनों को
अट्टहास करती रही
सच, भूख ब्रह्माण्ड भर यातना का दूसरा नाम है
स्थिर संकल्प तुम्हारे
बेचैन हुई तड़पी
टूटी-जुड़ी बार बार
अडि़य़ल क़लम
स्वाभिमान की लक़ीरों के पार नहीं गई
यह क्रूरता, उस क्रूरता के वाबस्ता
दरअसल घुटने न टेकने का ऐलान थी
3.
जि़न्दगी एक रेल्वे स्टेशन है
चली जाऊँगी जल्दी...
कहाँ... नहीं बताऊँगी
मास्को से प्राग
प्राग से पेरिस... फिर मास्को
छुक-छुक करती चलती रही रेलगाड़ी
और एक दिन बेआवाज़ हो गई
चली गई चिरविश्राम के लिए
बिना सिगनल दिए
अपना सामान छोडक़र
मैं प्लेटफार्म पर खड़ी
तुम्हारी परछाई छूने का प्रयास कर रही हूँ...