ज़िन्दगी का बोझ / शकुन्त माथुर
भारी है जीवन
झूठे बोझों से
जो नहीं छूते हैं
ज़रा भी जीवन ।
पीठ पर लादे वह
जब थक जाता है
हाथों को पाँवों को
छोड़ बैठ जाता है ।
बिस्तर को फेंक
बीच प्लेटफ़ॉर्म
मुँह बेरुखी से
घूमता है वहाँ ।
किन्तु यह जीवन है
घड़ी की सुई भी
कोल्हू का बैल
प्रतिदिन चलता है ।
भागता शौक़ से
स्टेशन पर कुली
ढोता है बोझा
ढोता है शक्ति-भर
पसीना पोंछता
कोई भाव भीतरी
मुख पर न लाता ।
गन्दा नहीं जीवन
सुन्दर है पहलू
पुर्ज़ा एक बनता
भारी मशीन का ।
दौड़ का है वक़्त
भूमि में तीव्रता
देशों में तनाव
नर में खिंचाव है ।
रेल के डिब्बे में
छोटे में छोटा
बड़े में बड़ा है
मानवों में भेद ।
एक कश खींचता है
सिगरेट दाबकर
छोटे से कहता :
‘गेट डाउन डैम’।
भिड़े हैं मुसाफ़िर
जमघट इकट्ठा है
प्लेटफ़ार्म भरा
दौड़ का है वक़्त ।
चला जा रहा
हिन्दी साहित्य
रेल में बैठ
दौड़ती कहानी
क्वाँरियों-सी
घिसटे लेख भी
पंगु-से, झोली फटी, टुकड़े बिखर रहे ।
आलोचनाएँ सो रहीं
बेफ़िकर
परवाह नहीं
है सीट तो रिज़र्व ।
दौड़ते हैं क्या
कभी चीट भी
बरसाती वक़्त है
मिश्री का कूज़ा
पास में पड़ा है
छूते हैं कूज़ा
हटते हैं छूते
होते हैं ख़ुश फिर
घूम-घूम दाएँ
अगल-बग़ल लिपटे
मिश्री के
कूज़े पर
कवि-जन प्यारे ।