भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी की इक हक़ीक़त आपसे कहता हूँ मैं / नित्यानन्द तुषार
Kavita Kosh से
ज़िन्दगी की इक हक़ीक़त आपसे कहता हूँ मैं
बिजलियों के दरमियाँ ही रात-दिन रहता हूँ मैं
तैरता है जिसका चेहरा मेरे दिल की झील में
उसकी ख़ुशबू से महककर ही ग़ज़ल कहता हूँ मैं
ख्व़ाब जब भी टूटते हैं ख़ुश्क पत्तों की तरह
रेत की दीवार-सा तब एकदम ढहता हूँ मैं
आँसुओं का है समन्दर मेरे दिल के बीच में
लोग ऐसा सोचते हैं ख़ुश बहुत रहता हूँ मैं
है वही सब कुछ मेरा जिसके लिए मैं कुछ नहीं
क्या बताऊँ किस तरह इस दर्द को सहता हूँ मैं
मन मेरा पागल हवा था एक वो भी दौर था
अब तो मन के साथ कमरे में पड़ा रहता हूँ मैं
लौटकर बरसेंगे उसके प्यार के बादल 'तुषार'
इस भरोसे में जुदाई की तपिश सहता हूँ मैं