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ज़िन्दगी की रीत / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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ज़िन्दगी हर क़दम स्वर बदलती गयी-
आँख मलती गयी, साध पलती गयी, साँस चलती गयी.

क्षण डगर पर रही, पल लहर पर बही, बात यह अनकही,
मोड़ पर वह मुड़ी, छोर भी गह रही, ताप भी सह रही,
पंथ छूटा मगर, आश रूठा मगर, प्यार टूटा मगर-
चाह आती रही, आह जाती रही, बात भाती रही...
चेतना पाँव उसके दबाती रही, साध गाती रही,
ज़िन्दगी स्वप्न सजती-सजाती रही, पग बढ़ाती रही,
पग उठाती चली, दीप-बाती जली, राह पाती चली-
स्नेह जलता गया, मन मचलता गया, मोम ढ़लता गया!
मोम की ज़िन्दगी!साँझ में जो बली-भोर तक वह जली,
उम्र की यह लहर, ज़िन्दगी बुलबुला, अब बनी, तब मिटी,
हर लहर पर छहर, हर घड़ी-हर पहर वह मचलती गयी-

रोक खलती गयी, याद छलती गयी, साँझ ढ़लती गयी,
ज़िन्दगी हर क़दम स्वर बदलती गयी-

गीत बुलबुल के गा, शूल पथ में चुभाकर बढ़ी ज़िन्दगी,
काढ़ घूँघट लजा और घूँघट उठाकर कढ़ी ज़िन्दगी-
ताज़ उसका यहीं, राज उसका यहीं, साज भी सज रहा,
मन नशीला था कल, तार ढ़ीला था कल-
आज भी बज रहा!
नाश फटते रहे, पाश कटते रहे, ज़िन्दगी है अड़ी,
ज़िन्दगी की घड़ी-
रेत में भी तपी, धार में भी खपी, पृष्ठ में भी छ्पी!
खेत में फल रही, आग पर चल रही, काल-तरू पर
खिली, कामना की कली...

काल सीमा में है ज़िन्दगी पर नहीं,
ज़िन्दगी चल रही खोजती दर नहीं,
उसकी डगरें बहुत कोई भी घर नहीं,
उसके दुश्मन बहुत - कोई भी डर नहीं!...

ज़िन्दगी जी रही-आसमां कह रहा 'औ' ज़मीं कह रही,
आदमी बढ़ रहा-ज़िन्दगी बढ़ रही-

आत्मा जी रही, रूप का आवरण उड़ गया तो उड़े,
साधना पी रही, प्यास लेकर मरण मुड़ गया तो मुड़े!
रात-दिन यह चिता, दे रही है पता, बढ़ रहा आदमी-
पल रहा आदमी, चल रहा आदमी, जल रहा आदमी...

साध पलती गयी-साँझ ढ़लती गयी-सेज जलती गयी,
ज़िन्दगी हर क़दम स्वर बदलती गयी !