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ज़िन्दगी को ग़र्क़ कर दे जो खुमो-खुमार में / दरवेश भारती

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ज़िन्दगी को ग़र्क़ कर दे जो खुमो-खुमार में
क्या तमीज़ उसे हो बेक़रारी-ओ-क़रार में

राह देखते ही देखते तमाम शब गयी
इक चिराग़ बुझ गया सहर के इन्तिज़ार में

एक है चमन, मगर ये खेल है नसीब का
फूल कुछ न खुल के खिल सके भरी बहार में

आदमी के वास्ते भी है वो लाज़िमी बहुत
जिस सिफ़त का है वुजूद दुर्रे-आबदार में

ख़ामुशी से वक़्त को गुज़ारिये कुछ इस तरह
कुछ कमी न आने पाये आपके वक़ार में