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ज़िन्दगी को हटा के देख लिया / उत्कर्ष अग्निहोत्री
Kavita Kosh से
ज़िन्दगी को हटा के देख लिया।
घर बहुत कुछ सजा के देख लिया।
ख़ार हों, फूल हों, या रिश्तें हों,
सबको दिल से लगा के देख लिया।
अहमियत क्या यहाँ उजाले की,
हमने घर तक जला के देख लिया।
झूठ, तिकड़म, बनावटी चेहरा,
ख़ुद को क्या-क्या सिखा के देख लिया।
दर्द अब साथ-साथ रहता है,
सौ दफा मुसकुरा के देख लिया।