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ज़िन्दगी ठहरी हुई नदी है / गीताश्री

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जिन्दगी ठहरी हुई नदी है
जिसकी देह में कौंध रही है अनगिन बिजलियाँ
उसके माथे पर इतने शिकन कि लकीरे गिनने का काम छोड़ कर
बैठ गई हूँ एक छोर पर
छिन गए हैं हाथ से सारे कंकड़-पत्थर
हथेलियों की आग सेरा गई है
पानी की सतह पर झुकी हुई झाड़ियो की पत्तियाँ और टहनियाँ
मेरी शिराओ सी फैल रही हैं नदी की देह मे
थोड़ी देर में मैं सब छोड़ कर उठ जाऊँगी यहाँ से
अब मेरे लिए यहाँ कोई काम नहीं बचा
सब कर रहे हैं अपने हिस्से का काम
नदी धँस रही है अपने भीतर
पत्थर खोज रहे हैं अपनी आग
बिजलियों को चाहिए कोई आकाश
टहनियों को चाहिए पानी की देह
सबको चाहिए अपनी जगह
पृथ्वी के सबसे बेकार हिस्से की खोज में
मैं भी लग गई हूं काम में
मुझे मिल नहीं रही वो जगह
जिसे उठा सकूँ शहर के छोर पर रखे समय के कूड़ेदान से