ज़िन्दगी तुम्हारे जैसी ही खूबसूरत होनी चाहिए / नाज़िम हिक़मत
{{KKRachna
|
रात 9 से 10 के बीच लिखी गई कविताएँ - 3
पत्नी पिराए के लिए
2 अक्टूबर 1945
हवा बह रही है।
चेरी की एक ही डाली
दुबारा कभी नहीं हिलाई जा सकती
उसी हवा द्वारा।
चिड़िया चहचहा रहीं हैं पेड़ों पर :
उड़ान भरना चाहते हैं पंख।
दरवाज़ा बन्द है :
वह टूटकर खुल जाना चाहता है।
मैं तुम्हें चाहता हूँ :
ज़िन्दगी तुम्हारे जैसी ही ख़ूबसूरत होनी चाहिए
दोस्ताना और प्यारी...
मुझे पता है कि अभी तक
ख़त्म नहीं हुआ है गरीबी का जश्न
मगर वह ख़त्म हो जाएगा...
००
5 अक्टूबर 1945
हम दोनों जानते हैं, मेरी जान,
उन्होंने सिखाया है हमें :
कैसे रहा जाए भूखा और बर्दाश्त की जाए ठण्ड,
कैसे मरा जाए थकान से चूर होकर
और कैसे बिछड़ा जाए एक-दूजे से।
अभी तक हमें मज़बूर नहीं किया गया है
किसी का क़त्ल करने के वास्ते
और खुद क़त्ल होने की नियति से भी बचे हुए हैं हम।
हम दोनों जानते हैं, मेरी जान,
उन्हें सिखा सकते हैं हम :
कैसे लड़ा जाए अपने लोगों के लिए
और कैसे — दिन ब दिन थोड़ा और बेहतर
थोड़ा और डूबकर —
किया जाए प्यार...
००
6 अक्टूबर 1945
बादल गुज़रते हैं ख़बरों से लदे, बोझिल।
अपनी मुट्ठी में भींच लेता हूँ वह चिट्ठी
जो आई नहीं अभी तक।
तुम्हारी पलकों की नोक पर टंगा है मेरा दिल,
दुआ देता हुआ उस धरती को
जो ग़ुम होती जा रही है बहुत दूर।
मैं ज़ोर से पुकारना चाहता हूँ तुम्हारा नाम :
पिराए,
पिराए !
अनुवाद : मनोज पटेल