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ज़िन्दगी तू कभी मानती ही नहीं / सुरेखा कादियान ‘सृजना’
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ज़िन्दगी तू कभी मानती ही नहीं
क्यूँ किसी राह पहचानती ही नहीं
छांव है इश्क़ की पास तेरे मग़र
तू मुझी पर कभी तानती ही नहीं
कल तलक जो मुझे देख के जी उठी
वो नज़र अब मुझे जानती ही नहीं
ख़ाक चाहे मिले जन्नतों की मुझे
उसके दर के सिवा छानती ही नहीं
क्या ज़मीं,वो गगन हो तले पाँव के
मैं कभी ये मग़र ठानती ही नहीं
मिट गयी हाँ मग़र इश्क़ को पा लिया
मैं कहाँ गुम हुई जानती ही नहीं