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ज़िन्दगी तेरे साथ से क्या मिला जुज़ तन्हाई के/ विनय प्रजापति 'नज़र'

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लेखन वर्ष: २००४/२०११

ज़िन्दगी तेरे साथ से क्या मिला जुज़<ref>अतिरिक्त</ref> तन्हाई के
हर गाम इक मंज़िल है लोग मिलते रुसवाई के

अब तो भरोसा ही उठ गया दुनिया के लोगों से
अहले-जहाँ <ref>दुनिया वाले</ref> कब क़ाबिल थे सनम तेरी भलाई के

ये चाक जिगर यूँ फड़का कि तड़पके फट ही गया
ऐजाज़े-रफ़ूगरी!<ref>सिलाई की जादूगरी</ref> ताग़े टुट गये सिलाई के

वो फ़ज़िर<ref>भोर</ref> के रंग और वो शाम का हुस्न अब कहाँ
चंद कुछ निशान थे सो मिट गये तेरी ख़ुदाई के

हिज्र<ref>विरह</ref> के रंगों में सराबोर हैं अब मेरी रातें
काँटों के बिस्तर पे बिताता हूँ दिन जुदाई के

करवटें बदल-बदलकर मेरी रातें गुज़रती हैं
नसीब नहीं अब मुझको हुस्न तेरी अँगड़ाई के

शब्दार्थ
<references/>