ज़िन्दगी तो रहेगी ही / संजीव सूरी
ज़िन्दगी तो रहेगी ही
कल रात
जड़ों ने मिट्टी से बग़ावत कत दी
पत्तों की चर्राहट औत सरसराहट
लुप्त होने लगी
जंगल की गहन वीथिकाओं में
और यह ख़बर दर्ज़ हो गई
पक्षियों की छातियों में
चारों दिशाएँ गूँज उठीं इस ख़बर से
नक्षत्र-मण्डलों से भी उतर आए कुछ
देवदूत
लगा यह ... यह सृष्टि के अंत का सूचक है
साँय साँय करती रात में
समाधि से उठता है पहाड़ भी
चिपक गए दरख़तों की कनपटियों पर
कुछ मृत जुगनू
रोया बहुत उदयाचल, अस्ताचल
और ब्रह्माण्ड को उठाए एटलस
स्याह होने लगा
आकाश का नीलापन
पिघलकर बूँद-बूँद गिरने लगा अनवरत
क्षितिज पर लटका हुआ चाँद
तुषार-मंडित हरीतिमा अएर
कुछ बूँदें हो जाती हैं जज़्ब
काल व्यापी शून्य में
इसी शून्य मे होता है
महानृत्य
अपाहिज इलेक्ट्रानों का
निकलती है झनझनाती आग
और कुछ जाँबाज़ सिरफ़िरे
हाथ बढ़ाकर थाम लेते हैं आसमान
निचोड़ देते हैं इसके अँधेरे को
छिड़क देते है तारों को पृथ्वी पर
तभी आता है एक सफ़ेद कबूतर
पूर्व से उड़ कर और कहता हऐ
तारे हैं,कुछ पेड़ हैं
ज़िन्दगी तो रहेगी ही
इस ख़ूबसूरत पृथ्वी पर.