भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी से थकी-थकी हो क्या / 'ज़िया' ज़मीर
Kavita Kosh से
ज़िन्दगी से थकी-थकी हो क्या
तुम भी बेवज़ह जी रही हो क्या
मैं तो मुरझा गया हूँ अब के बरस
तुम कहीं अब भी खिल रही हो क्या
तुमको छूकर चमकने लगता हूँ
तुम कोई नूर की बनी हो क्या
इसकी ख़ुशबू नहीं है पहले-सी
शहर से अपने जा चुकी हो क्या
देखकर तुमको खिलने लगते हैं
तुम गुलों से भी बोलती हो क्या
आज यह शाम भीगती क्यों है
तुम कहीं छिप के रो रही हो क्या
सोचता हूँ तो सोचता यह हूँ
तुम मुझे अब भी सोचती हो क्या