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ज़िन्दगी / चेतन दुबे 'अनिल'
Kavita Kosh से
अमावस्या के
घने अँधेरे में
ताल के किनारे पर खड़ा
बबूल का वो पेड़
जिस पर लटक रहा है
वया का एक घोंसला
और घोंसले के द्वार पर
पुरा है मकड़ी का जाला
जाले में फँसी मकड़ी
बाहर निकलने को
छटपटाती है
पर निकल नहीं पाती ।
ताल के किनारे पर
झींगुरों की झनकार
और मेढकों की टर्र - टर्र
के शोर के बीच
वो मकड़ी
और भी
बेचैन हो जाती है
बाहर निकलने को।
उसी तरह
तुम्हारी यादों के जाले में
फँसा हुआ मेरा मन
तुम्हारी यादों के जाले से
बाहर निकलने को
छटपटाता है
पर निकल नहीं पाता
और मैं
बार - बार सोचता हूँ कि
क्या यही है ज़िन्दगी।