ज़िन्दा हो या नहीं / सुभाष राय
क्या कभी ख़ुद से बाहर
निकलकर देखा है ख़ुद को ?
अपने चेहरे के दाग़ देखे हैं ठीक से ?
असहमत हुए हो कभी अपने आप से ?
ख़ुद से बहस की है ?
क्या कभी ऐसा हुआ कि
जीवन की सन्धि पर जा खड़े हुए हो ?
दिन और रात की सन्धि पर
जहाँ से देख सको दोनों को
साफ़-साफ़, अलग-अलग
रोशनी को, अन्धेरे को भी
राग को, द्वेष को भी
हर्ष को, विषाद को भी
धर्म को, अधर्म को भी
जीवन को, मृत्यु को भी
सन्धि पर केवल सन्धि ही है
या कुछ और भी है ?
अन्धेरे के उस पार
केवल रोशनी ही है
या कुछ और भी है ?
कभी जा सके हो रोशनी के आगे ?
कभी मन हुआ कि
ब्रह्माण्ड के किसी छोर पर
बैठकर देखो ब्रह्माण्ड को
अपनी धरती को
अपने घर को, अपने प्रियजनों को
इन सबके होने और न होने को
साफ़-साफ़, अलग-अलग
एक और सवाल
क्या कभी अपने ही किसी हिस्से की
मौत पर खुशी मनाई ?
किसी अन्य हिस्से की मौत पर
दुख हुआ, वेदना फूटी ?
अपने आस-पास की
वँचना, छल, पाखण्ड
पाषाणता, चुप्पी
देखकर कभी उबले
कभी सोचा कि तुम
कितने ज़िन्दा बचे हो ?