भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िह्न पर एक सियह्पोश घटा छाई है / ज़ाहिद अबरोल
Kavita Kosh से
ज़िहन<ref>मस्तिष्क</ref> पर एक सियहपोश<ref>काली, शोकाकुल,शोकग्रस्त</ref> घटा छाई है
हम को बिकते हुए सूरज की ख़बर आई है
फ़िक्र-ओ-एहसास<ref>सोच और अनुभूति</ref> की वुस्अत<ref>विस्तार</ref> में बिखरती हुई ज़ीस्त<ref>ज़िंदगी</ref>
फिर उसी रैनबसेरे में सिमट आई है
जब कभी टूटी खिलौनों की तरह मेरी हयात<ref>ज़िंदगी</ref>
ख़ुद से भी तोड़ने वालों से भी शर्माई है
भूल जायेंगे सभी अहद-ए-ख़ज़ां<ref>पतझड़ का दौर</ref> की सख़्ती
एक आवाज़ लगा दो कि बहार आई है
कुछ न कुछ अपने ही अंदर मैं छुपा लेता हूं
दिल की हर बात न होंठों पे कभी आई है
हर कोई जान गया है तिरे जीने का सबब<ref>कारण</ref>
अब तो “ज़ाहिद” तिरे मरने में भी रूस्वाई है
शब्दार्थ
<references/>