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ज़ीस्त अपनी पे आ गई आख़िर / सुभाष पाठक 'ज़िया'

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ज़ीस्त अपनी पे आ गई आख़िर
नोंच ली इसने रूह भी आख़िर

बढ़ गईं थीं ज़रूरते इतनी
शर्म खूँटी पे टांग दी आख़िर

तेरा ग़म याद और तन्हाई
मैंने मंज़िल तलाश ली आख़िर

तुझ पे ही ख़त्म था सफ़र मेरा
मैं था सूरज तू शाम थी आख़िर

ख़ाक ही है वजूद हर शय का
और अंजाम ख़ाक ही आख़िर

ख़ूँ जलाने का तजरुबा है 'ज़िया'
रात दिन की है शायरी आख़िर