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ज़ुबां ख़ामोश है डर बोलते हैं / राजेश रेड्डी

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ज़ुबां ख़ामोश है डर बोलते हैं
अब इस बस्ती में ख़ंजर बोलते हैं

मेरी परवाज़ की सारी कहानी
मेरे टूटे हुए पर बोलते हैं

सराये है जिसे नादां मुसाफ़िर
कभी दुनिया कभी घर बोलते हैं

तेरे हमराह मंज़िल तक चलेंगे
मेरी राहों के पत्थर बोलते हैं

नया इक हादिसा होने को है फिर
कुछ ऐसा ही ये मंज़र बोलते हैं

मेरे ये दोस्त मुझसे झूठ भी अब
मेरे ही सर को छूकर बोलते हैं