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ज़ुल्फ़-ए-जानाँ पे तबीअत मिरी लहराई है / शेर सिंह नाज़ 'देहलवी'

ज़ुल्फ़-ए-जानाँ पे तबीअत मिरी लहराई है
साँप के मुँह में मुझे मेरी क़ज़ा लाई है

आज मय-ख़ाने पे घंघोर घटा छाई है
एक दुनिया है कि पीने को उमड़ आई है

ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग का है अक्स ये पैमाने में
या परी कोई ये शीशे में उतर आई है

तू बता नावक-ए-जानाँ तिरी क्या है नीयत
ख़ंजर-ए-यार ने तो सर की क़सम खाई है

हूर ओ ग़िल्माँ मिरी आँखों में समाँए क्यूँ कर
किस में तेरी सी अदा तेरी सी रानाई है

कुछ मुदावा न हुआ तुम से मरीज़-ए-ग़म का
क्या इसी बरते पे दावा-ए-मसीहाई है

सुर्ख़ी-ए-ख़ून-ए-शाहीदाँ की झलक है इस में
दस्त-ए-क़ातिल पे ग़ज़ब रंग हिना लाई है