भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़ुल्मते-ए-शब से उलझना है सहर होने तक / नौ बहार साबिर
Kavita Kosh से
ज़ुल्मते-ए-शब से उलझना है सहर होने तक
सर को टकराना है दीवार में दर होने तक
अब तो उस फूल के निकहत से महकती है हयात
ज़ख़्म-ए-दिल ज़ख़्म था तहज़ीब-ए-नज़र होने तक
दिल ही जलने दो शब-ए-ग़म जो नहीं कोई चराग़
कुछ उजाला तो रहे घर में सहर होने तक