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ज़ुल्मतों के वार दम-ब-दम हुए / फ़रीद क़मर
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ज़ुल्मतों के वार दम-ब-दम हुए
रौशनी के दायरे न कम हुए
चन्द पत्थरों की शह पे, शहर के
सारे आईनों के सर क़लम हुए
एक आफताब जिसकी मौत पर
लाख दामने-चराग़ नम हुए
जिनके दामनों पे खूं के दाग़ थे
वो तेरी नज़र में मोहतरम हुए
जिस्मो-जान सब लहूलुहान हैं
ज़िन्दगी के हम पे ये करम हुए