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ज़ुल्मत-ए-शब में हमें चाँद उगाने होंगे / जावेद क़मर
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ज़ुल्मत-ए-शब में हमें चाँद उगाने होंगे।
जुगनुओं से ये कहाँ दूर अंधेरे होंगे।
इम्तिहाँ ज़िन्दगी हर रोज़ मिरे लेती है।
इम्तिहाँ कितने अभी और न जाने होंगे।
फ़ख्र करते हैं गुनाहों पर जो शर्माते नहीं।
किस तरह नेक वह अल्लाह के बन्दे होंगे।
हुस्न वालों से है उम्मीद वफ़ा की तुम को।
ये किसी के न हुए कैसे तुम्हारे होंगे।
किस लिए सुनता नहीं कोई भी इन को, शायद।
दर्द अंगेज़ बहुत मेरे फ़साने होंगे।
एक मुद्दत से ख़बर उन की नहीं है कोई।
जाने किस हाल में अब दर्द के मारे होंगे।
हिज्र की धूप में हर रोज़ झुलसता है 'क़मर' ।
कब अता उस को तिरी ज़ुल्फ़ के साय होंगे।