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ज़ेर-ए-ज़मीं हूँ तिश्ना-ए-दीदार-ए-यार का / मिर्ज़ा रज़ा 'बर्क़'
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ज़ेर-ए-ज़मीं हूँ तिश्ना-ए-दीदार-ए-यार का
आलम वही है आज तलक इंतिज़ार का
गुज़रा शराब पीने से ले कौन दर्द-ए-सर
साक़ी दिमाग़ किस को है रंज-ए-ख़ुमार का
महशर के रोज़ भी न खुलेगी हमारी आँख
सदमा उठा चुके है़ शब-ए-इंतिज़ार का
इबरत की जा है आलम-ए-दुनिया न कर गु़रूर
सर कासा-ए-गदा है किसी ताज-दार का
बाद-ए-फ़ना भी है मरज़-ए-इश्क़ का असर
देखो कि रंग ज़र्द है मेरे ग़ुबार का
उल्फ़त न कुछ परी से न कुछ हूर से है इश्क़
मुश्ताक ‘बर्क़’ रोज़-ए-अज़ल ये है यार का