ज़ेहन में रहे इक अजब खलबली सी / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'
ज़ेहन में रहे इक अजब खलबली सी
कि कुछ अधपकी सी कि कुछ अधजली सी
न सोई न जागी पलक अधखुली सी
लगे ख़लवतों की ख़ला में पली सी
ख़ला हो किसी शक्ल में भी ढ़ली सी
बुरी तो न होगी न हो जो भली सी
कली एक एहसास की अधखिली सी
रहे झूमती सी किसी मनचली सी
है सदियों पुरानी सदा बावली सी
अँधेरों नहाई उजालों फली सी
अजब छ्टपटाहट मची दिलजली सी
हमारे वुजूदों में अंधी गली सी