भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़ेह्न अपना झँझोड़ कर देखो / साग़र पालमपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


ज़ेह्न अपना झँझोड़ कर देखो
खुद को दुनिया से मोड़कर देखो

सच हमेशा सपाट होता है
चाहे कितना मरोड़ कर देखो

ज़ालिमो! तुम कभी लहू अपना
बूँद भर ही निचोड़ कर देखो

जिन ग़रीबों के हो मसीहा तुम
ख़ुद को उन से तो जोड़कर देखो

मंज़िलें ख़ुद क़रीब आयेंगी
साथ रहबर का छोड़ कर देखो

आइना तोड़ना तो आसाँ है
टूट जाये तो जोड़ कर देखो

अपने रंग-ए-ग़ज़ल से ही ‘साग़र’!
रुख़ हवाओं का मोड़ कर देखो.