जांगुसल नग़्मा था, क्यों गाया गया / विजय 'अरुण'
जांगुसल<ref>जान को कष्ट देने वाला</ref> नग़्मा था, क्यों गाया गया
मैं बमुश्किल होश में लाया गया।
'कुछ कहो' जब-जब ये फ़रमाया गया
मैं हमा-तन-गोश<ref>तल्लीन</ref> ही पाया गया।
कब सवाले दीन सुलझाया गया
हर तरह से इस को उलझाया गया।
बात थी सो हो गई आई गई
एक दिल था हो गया आया गया।
बेख़ुदी<ref>आत्म विस्मृति</ref> फिर भी न हासिल हो सकी
जाम को भी काम में लाया गया।
ख़ूबरू<ref>सुन्दर मुख</ref> का भी तसव्वुर ख़ूब है
एक झोंके की तरह आया, गया।
ऐ ख़ुदा! तू लाख हो ख़लवतनशीं<ref>एकान्तवासी</ref>
नक्श-ए-पा<ref>पैरों का निशान</ref> फिर भी तिरा पाया गया।
मैं असाबरदार<ref>वह नौकर जो सोने या चान्दी का खोल चढ़ा हुआ डन्डा ले कर प्रतिष्ठित लोगों के आगे-आगे चलता है। </ref> हूँ, हाकिम नहीं
मुझ से तो इक बोझ उठवाया गया।
जो तबस्सुम अब किसी लब पर नहीं
तेरे लब पर क्यों 'अरुण' पाया गया।