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जाएं तो जाएं कहां / विनोद शर्मा

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जवानी में उठा हर कदम बुढ़ापे को
हमारे एक कदम नजदीक ले जाता है
मगर हम इसे अनदेखा कर देते हैं।

जवानी की मीठी नींद और रंगीन सपनों से हमें
फुर्सत ही नहीं मिलती
कि हम बुढ़ापे के कदमों की आहट को
सुनें और उसके बारे में सोचे
यह जानते हुए भी कि बुढ़ापा भी
मृत्यु की तरह एक शाश्वत सत्य है

दुर्भाग्य से हम अपनी ओर आते बुढ़ापे को
ही अनदेखा नहीं करते
बल्कि अपने बूढ़े मां-बाप की उम्मीदों
और जरूरतों को भी अनदेखा करते हैं

समय का पहिया घूमता रहता है
और एक दिन जब हम जवानी की नींद से जागते हैं
तो देखते हैं कि
जवान हो चुके हमारे बच्चों के पास भी
हम बूढ़ों के लिए समय नहीं है
क्योंकि वे भी जवानी की मीठी नींद में सोए
और रंगीन सपनों में खोए हुए हैं

बच्चों की बेरुखी
और समाज के लिए बेकार हो जाने का अहसास
हमें कचोटने लगते हैं
हम यकायक खामोश हो जाते हैं
अकेलेपन और लाचारगी में लड़खड़ते कदमों से
जिंदगी का सफर तै करने की
नाकामयाब कोशिश करते हैं

हमारी आंखों को वीरानी में
सवाल कौंधता है-”जाएं तो जाएं कहां?“
ऐसी स्थिति में हम पीछे मुड़कर देखते हैं
तो अपने पे शर्म आती है
और आगे देखते हैं तो
अपने बच्चों से घृणा हाने लगती है

यह ठीक है कि
रफ्तार के इस मशीनी युग में जिंदगी के संघर्षों
और तकलीफों से गुजरते हुए
हम श्रवणकुमार की तरह मां-बाप को
बहंगी में लिए-लिए तो नहीं भटक सकते
मगर उनके साथ कुछ वक्त बिताकर
उनकी यथाशक्ति सेवा करके
उन्हें यह अहसास तो दिला ही सकते हैं

कि अपनी जिंदगी की गोधूलि बेला में
वे अकेले नहीं हैं
हम भी उनके सथ हैं
वे हमारे लिए बोझ नहीं हैं
हमें उनकी अब भी उतनी ही
जरूरत है जितनी कि पहले कभी थी
ताकि अकेलेपन में खुद से वे
यह सवाल न पूछें-”जाएं तो जाएं कहां?”