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जाओ! कट्टी, सच्ची-मुच्ची / अनुराधा पाण्डेय

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जाओ! कट्टी, सच्ची-मुच्ची,
तुमसे प्यार नहीं करती हूँ।

बहुत सताते आँख दिखाते,
मुझको सपनों में भरमाते।
रहते हो तुम दूर विजन में,
मुझ पर बस अधिकार जमाते।
मैं ही फिर क्यों आऊँ वन में
सीमा पार नहीं करती हूँ।

जाओ! कट्टी, सच्ची-मुच्ची,
तुमसे प्यार नहीं करती हूँ।

तुम अंबुधि तो मैं भी सरिता,
मेरी भी है मर्यादाएँ।
मेरे ही मृदु जल से निर्मित
रत्नाकर की भी समिधाएँ।
बाध्य नहीं हूँ तुम तक आऊँ,
मैं स्वीकार नहीं करती हूँ।

जाओ! कट्टी, सच्ची-मुच्ची,
तुमसे प्यार नहीं करती हूँ।

प्रणय भला होता क्या विपणन,
मैं बोलूं तब ही तुम बोलो।
आवश्यक क्या मृदुल भाव को,
मापो या पलड़े में तोलो।
 "मैं" , "तुम" दो की तुलना का मैं
छल व्यापार नहीं करती हूँ।

जाओ! कट्टी, सच्ची-मुच्ची,
तुमसे प्यार नहीं करती हूँ।