जागता हीं रहा रात भर रात भर / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
जागता हीं रहा रात भर रात भर
पास आने को सपने तरसते रहे
रात रोती रही ओस गिरती रही
और आँखों से आँसू बरसते रहे
मन ने चाहा मगर याद सोई नहीं
खिड़कियों से पिघल चाँदनी बह गई
रात को नींद आने लगी जब कभी
जागने को उसे ज़िन्दगी कह गई
रात सूनी मेरी बेबसी देखकर
तारकों को तनिक नींद आई नहीं
रात भर जागती रह गई यह हवा
साँस में गन्ध बेला की आई नहीं
मोम को पी गई एक लौ आग की
मौन होकर मगर वह टहकता रहा
एक लौ सौ शलभ को जलाती रही
पंख जलते रहे मन बहकता रहा
तारकों से सजायी हुई चुन्दरी
खोलकर रात नंगी खड़ी हो गई
ढाँक रवि ने उसे जब किरण चीर से
एक चुम्बन लिया तो सुबह हो गई
लाज से भी नरम रात के ग़ाल पर
लाल चुम्बन उगा तो उषा बन गई
मैं वियोगी बना रात दिन का मिलन
देखने जब लगा तो घटा तन गई
हार कर मन मगर प्यार करता रहा
ठोकरों से अँधेरा जगाता रहा
याद उनकी लिए मैं भिखारी बना
द्वार उनका सदा खटखटाता रहा
दस्तकें द्वार पर अनसुनी हो गईं
बेरहम ने मगर द्वार खोले नहीं
मैं बुलाता रहा-कौन माने भला?
लौट आया मगर प्यार बोले नहीं