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जागती आँखों से शब को हम सहर करते रहे / कविता सिंह
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जागती आँखों से शब को हम सहर करते रहे।
रात भर अश्क़ों को मानिंद-ए-गुहर करते रहे॥
लफ्ज़ चुन-चुनकर ग़ज़ल हम बा असर करते रहे-
दास्ताने ज़िन्दगानी मौतबर करते रहे॥
इस तरह आइना गर्दिश की नज़र करते रहे-
ज़िन्दगी ने जो दिया हँस के गुज़र करते रहे।
हर शजर देता रहा धोखा हमें इक छाँव का-
और हम सहराओं का तपता सफ़र करते रहे।
सबकी कोताही से बढ़कर है तेरा रहम-ओ-करम-
इसलिए तेरे करम पर हम नज़र करते रहे।
टूटती हैं आज फिर से दिल की ये नाज़ुक रगें-
टूटते दिल से ही हम शामो-सहर करते रहे।
ढूढ़ते थे हम 'वफ़ा' इन संग दिल इंसान में-
दिल लगी को दिल्लगी—सा ये बशर करते रहे।