जागहु हो ब्रजराज हरी / सूरदास
जागहु हो ब्रजराज हरी सूरदास श्रीकृष्णबाल-माधुरी
जागहु हो ब्रजराज हरी !
लै मुरली आँगन ह्वै देखौ, दिनमनि उदित भए द्विघरी ॥
गो-सुत गोठ बँधन सब लागे, गोदोहन की जून टरी ।
मधुर बचन कहि सुतहि जगावति, जननि जसोदा पास खरी ॥
भोर भयौ दधि-मथन होत, सब ग्वाल सखनि की हाँक परी ।
सूरदास-प्रभु -दरसन कारन, नींद छुड़ाई चरन धरी ॥
भावार्थ :-- माता यशोदा पास खड़ी होकर बड़ी मीठी वाणी से पुत्र को जगा रही है- `व्रजराज श्यामसुन्दर ! तुम जागो । मुरली लेकर आँगन में आकर देखो तो, सूर्योदय हुए दो घड़ियाँ बीत चुका है । सबेरा हो गया है, सब घरों में दही मथा जा रहा है । तुम्हारे सब ग्वाल-सखाओं की पुकार सुनायी पड़ रही है ।' सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी का दर्शन करने के लिये मैया ने उनका चरण पकड़कर (हिलाकर) उनकी निद्रा दूर कर दी |