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जाग-जाग भरमाए / यतींद्रनाथ राही

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कैसी हवा चली है जाने
दिन कैसे ये आये।

बुझा-बुझा सा
मन लगता है
लुटी-लुटी सी साँसें
कसक उठी क्यों आज अचानक
पोर-पोर में फाँसें
विश्वासों की कमल-झील में
काई पसर गयी
पँखुरी-पँखुरी हुई गन्ध की
अँजुरी बिखर गयी
डूब रही है फसल खेत की
उफने नद पगलाये।
उलझे हैं
रेशम के धागे
टूट गयी मालाएँ
अमृत के प्यालों में उठती
है विषमय ज्वालाएँ
किसे बाँध लें,
किस छोड़ दें
गठरी कहाँ सहेजें
किसके द्वार विवशताओं के
हम आवेदन भेजें
उलझे पंथ
नगर अनजाने
सांझ घिरी घन छाये।

किस मन्दिर में धरें दीवला
किसमें अलख जगाएँ
करें प्रार्थना
धरें अजानें
कैसे उसे रिझाएँ
अब तक तो जिस पावनता का
जब नैपथ्य उठाया
घोर पाप का महिमा-मण्डित
महासत्य ही पाया
ऐसे महा कुटिल खलकामी
जाग जाग भरमाये!
26.8.2017