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जाड़ा: दो कविताएँ / रामदरश मिश्र

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एक

माघ की ठंडी हवाएँ डंक मार रही हैं,
गर्म कपड़ों के भीतर भी तन थरथरा रहा है
स्तब्ध से खड़े हैं फूलों के पौधे
मैं धूप की प्रतीक्षा में टहल रहा हूँ गैलरी में
अरे वाह!
देखा एक पौधे के सिर पर
पहला-पहला फूल हँस रहा है,
मुझे एकाएक लगा कि
दिन में दूसरा दिन उग आया है
जिसमें बसंत की आहट सुनाई दे रही है।

दो

सुबह-सुबह
अलाव के पास बैठा हुआ मैं
चाय पी रहा हूँ
और कोस रहा हूँ इस मनहूस ठंडे मौसम को
जिसने तन की गति
और मन की चेतना स्तब्ध कर रखी है
एकाएक सामने देखता हूँ
चिड़ियाँ मस्ती से पंख फड़फड़ा-फड़फड़ा कर
नहा रही हैं उनके पीने के लिए रखे हुए पानी में
और गा रही हैं विविध स्वरों में
गिलहरियाँ चिकचिक करती हुई
पेड़ों पर दौड़ रही हैं, खेल रही हैं
गमलों में लगाए गए पौधों में
एक नई चमक दिखाई पड़ रही है
लगता है अब फूले, अब फूले
मैं अपने पर शर्मिंदा हो उठता हूँ।
-5.1.2014