जाड़े की धूप और गुलाबी फ्राक पहने नन्ही बच्ची / प्रकाश मनु
पता नहीं किस बात पर
खिलखिलाकर
हंस पड़ी है जाड़े की धूप,
पार्क में गुलाबी फ्राक पहने खेलती
नन्ही बच्ची की तरह
जिसके हाथों में
बड़ा सा लाल-हरा गुब्बारा है
आईने की तरह साफ
और उजला है मौसम
खरगोश की तरह उछलती
धूप
बे-आवाज-
गौर से देखो तो हवा के हाथ में
नजर आते हैं
छोटे-छोटे कुसुंभी तीर-कमान
जिन्हें वह जब चाहे लापरवाही से
हरे गलीचे पर गिरा देती है
हल्की खुनक है, खनक-कहीं-कहीं फिजां में
और हम सब चुप हैं अपनी-अपनी
कांटेदर बाड़ में
अपनी-अपनी मौन वादियां तलाशते
सिकते हुए धूप में!
मगर...
ख़ेलती हुई बच्ची खेल-खेल में
तालियां बजा-बजा कर हंसती है
किसी बात या बे-बात पर!
अब वह मां का हरा शाल खींच रही है
अब कानों में कुछ कहना चाहती है शायद
कहती है और हंसती है
बुनती हुई सलाइयों को रोककर
स्मृति में मां को कहां ले जाना चाहती है बच्ची
शायद उसे पापा की याद आ रही है
शायद उसे आइसक्रीम चाहिए
अभी-बिलकुल अभी-
और जिद में ऊन के गोले को दूर तक
खोलती चली जा रही है
अचानक कहीं से
दौड़ता हुआ आता है एक भूरा कुत्ता
चपुचाप बच्ची की छूटी हुई रोटी खा
दुम टांगों में दबाकर लेट जाता है
(आंखों में गहरी कृतज्ञता-धन्यवाद, नन्ही बच्ची धन्यवाद!)
खेलती हुई बच्ची के लिए
यह भी एक खूबसूरत खेल है
अपनी नन्ही-नन्ही हथेलियों से
थपथपाने लगती है उसकी पीठ
फिर वह फूलों पर उड़ती रंगारंग
तितलियां पकड़ने दौड़ती है
फिर तितलियां भूलर फूलों के रंग
बोल-बोल याद करती है
फिर उन्हें गिनने और भुलने को गिनने
और भूलने लगती है...
आखिर थककर वह मां की गोद
में आ लेटती है
कोई नई बात बताने की कोशिश करती है
कि अलसाकर सो जाती है
उसके हाथों का लाल-हरा गुब्बारा
अब भी हवा में उड़ रहा है
देर तक
वैसे ही उड़ता रहता है गुब्बारा
और हंसती है
हंसती रहती है जाड़ की धूप
बच्ची के नरम, शहदील होंठों पर
सजे हुए मोतियों की मानिन्द!