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जाड़े की सुबह : एक / श्रीनिवास श्रीकांत

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जाड़े की सुबह और ठिठुरता मोहल्ला
फूटे टीन,कचरा ढेरियों को
चोर हाथों टटोलती है
ठण्डी धूप
चौखटों पर हैं तैनात
सतर्क अंधेरे
ऊटपटाँग सपनों के साथ लेते अंगड़ाईयाँ
उभरती है नल की टप-टप
घड़ी की टिक-टिक के साथ
नज़दीक
नज़दीक
और और नज़दीक आती हुई
जागता है आदमी
दुधमुहें दिन की बासी भाप के भाप के साथ

मोहल्ले में न कोई दरख़्त है
न मौसम का अहसास
न हवा की आहट
न गये कल की याद
टेढ़ी-मेढ़ी सीढ़ियों से उतरते हैं लोग
खिड़कियों से झाँकती हैं आँखें बेपरवाज़
शून्य को तराशाती आँखें
हिलता हइ जैसे गले फल में
बिना रीढ़ का कीड़ा
छज्जों पर धोबी टाँगते हैं
कतार बद्ध कपड़े
सफेद,पीले,चैकदार
रिटायर्ड अफ़सरों के घिसे सूट
बूढ़ी नायिकाओं की ढीली चोलियाँ
वक़्त नहीं गुज़रता
इन अहातों से
गुज़रती है एक काली नदी
नालियों से गटर तक जिसका
बहता रहता मवाद

मच्छर
एपिडैमिक
और तपैदिक के जरासीम

एक स्याह अन्धापे से ग्रस्त हैं यहाँ लोग
बिस्तर पर खाँसते रोगी आकाश
दिन पर दिन
साल पर साल
बढ़ता जाता है बोझ
दब जाती हैं परतों के नीचे
अन्धेपन की मुरादें
कर्कश सपने जैसे कुरेदते हों
बे-पर यादों के नमुराद ज़ख़्म---असाध्य घाव

पिछले बरस आया था भूकम्प
सरकी थी ज़मीन
हिल गया था नगर
पर बच गये बाल-बाल


सफ़ेदपोश-बरामदे
आबनूसी कमरे
शराब के तहख़ाने
और स्टार होटलों की जड़ाऊ बुर्जियाँ
धंसा तो धंसा फिर भी
यह नगर घुसरा मोहल्ला
भुजा टूटी एक बालक की
दो -एक औरतों के कुचले गये स्तन
धंस गयी बुढ़िया की आँख
निकल आईं थी बाहर
भूख़े भैंसे की आंत
फर्श गये थे दरक
बच गया था मगर मोहल्ला

अब के बरस आयें शायद
कोढ़ियों के हुजूम
पीप रिसते हाथों मांगते हुए ख़रात
बैठे हैं इसलिये ये लोग
हाथ के क़टोरों में लिये
नागफ़नियों के काँटेदार फ़ूल


पीला-पीला हो गया नीला आसमान
जैसे पोलियो में हो जाती हैं आँखें
पीली-पीली शीशियाँ
पीला-पीला पानी
पीली-पीली हथेलियाँ
उड़ती है अहाते में
पीली-पीली धूल
जिगर की तरह बढ़ता जाता दिन
शैतान उम्मीदों की फरेबी तलाश में
गिलास में जैसे छलके पीली शराब
सूजी आँखों की अलकोहलिक थकन के साथ

बना दिया मकड़े ने अहाते में फिर एक जाला
पिघलता है काई जमीं टंकियों में
पिछली रात का पाला
पेट के जलाशय में उगती है भूख
सरकती है बरामदों में कुन्दधार वाली धूप
रस्सियों पर उलटे लटके पूँछदार जानवर
सेकते हैं अपनी पीठ
मोहल्ले के नमुराद अहाते में

अहाते को छलता हुआ
गुज़र जाता है दिन
अध्यापक को जैसे चीट करे कोई शरीर बालक
क्लिपटोमेनिया ग्रस्त कोई औरत चुरा ले
छाबड़ी से अंगूर का गुच्छा

जैसे कड़वे पपीते के स्वाद
जैसे बुख़ार में के गई क़ै
वैसे ही रोज़-रोज़ गुज़रता है दिन
और धंसी आँख वाली बुढ़िया
बैठी रहती है खटोले पर
सूरज की ओर किये अपनी पीठ

खटोला जो नहीं है परीजाद
खटोला जो नहीं उड़ सकता
तिलस्मे आसमानों में

खाली बोतल से जिन्न की आकांक्षा करता
सिन्दबाद सिन्दबाद सिन्दबाद
पुकारता है बुढिया का पोता
सिन्दबाद सिन्दबाद सिन्दबाद
दोहराता है पिंजड़े में
मिर्चें कुतरता पक्षी
बोलता है खटोले वाली बूढ़िया का अनुभव :
'सिन्दबाद नहीं आयेगा पोते
काश, हम लोगों के भी पर होते'
होते हैं जैसे ऊँची-ऊँची हवेलियों के
सेठ राजाराम के ग़लीचों वाले पर
खटमल है राजाराम
जो ढीली चारपाईयों की चूलों से
निकलता है हर रात
चूसने अहाते के लोगों का रक्त
चिटक कर जागते हैं
माँ की छाती से चिपके बच्चे
कराहता है अँधेरे में झुनिया दादा

हवेलियाँ हवेलियाँ हवेलियाँ
चारों तरफ़ जंतर-मंतरनुमा
पेचदार सीढ़ियों वाली हवेलियाँ
खनकते सिक्कों की टकसालें
मौत की सरकती हुई हथेलियाँ
क़रीब से क़रीबतर आती हुईं
घिर गया बीच में यह मोहल्ला

अरब का सौदागर है वक्त
उजाड़ में गाड़ता है नित नये तम्बू
ऊट बैठता है रोज़ नयी करवट
करवट जो नहीं है आदमी की नियति