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जाड़े के फूलों को देखकर / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
वे सुन्दर घने फूल हंस पड़े
मुझे पास आते देखकर
इतने पास की चारों और वे रंगों से भरे हुए
हल्की हवा से हिलते-डोलते
जैसे बिना किसी आधार के हों
बस मेरे पास आना चाह रहे हों
वे इसी तरह से, मैं भी इसी तरह से
फर्क इतना कि वे रहेंगे मौजूद वहीं पर
मैं वापस लौट जाऊंगा
वो भी इतने सारे फूलों को छोडक़र
इनकी इतनी घनी कतार
इन्हें गिन भी नहीं सकता मैं
सभी एक ही दृष्टि से मेरी और मुख किये हुए
और उनके प्यार से द्रवित होता जा रहा हूं।