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जाड़े के मौसम में तिल के लड्डू / नज़ीर अकबराबादी

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जाड़े में फिर खु़दा ने खिलवाए तिल के लड्डू।
हर एक खोंमचे में दिखलाए तिल के लड्डू।
कूचे गली में हर जा, बिकवाए तिल के लड्डू।
हमको भी हैगे दिल से, खुश आये तिल के लड्डू।
जीते रहे तो यारो, फिर खाये तिल के लड्डू॥1॥

उम्दों ने सौ तरह की, याकू़तियां बनाई।
लौंगों में दारचीनी, श्क्कर भी ले मिलाई।
सर्दी मंे दौलतों की, सौ गर्म चीजे़ं खाई।
औरों ने डाल मिश्री गर पेड़ियां बनाई।
हमने भी गुड़ मंगाकर, बंधवाए तिल के लड्डू॥2॥

रख खोमंचे को सर पर पैकार यों पुकारा।
बादाम भूना चाबो और कुरकुरा छुहारा।
जाड़ा लगे तो इसका करता हूं मैं इजारा।
जिसका कलेजा यारो, सर्दी ने होवे मारा।
नौ दाम के वह मुझसे, ले जाये तिल के लड्डू॥3॥

जाड़ा तो अपने दिल में था पहलवां झझाड़ा।
पर एक तिल ने उसको रग-रंग से उखाड़ा।
जिस दम दिलो जिगर को, सर्दी ने आ लताड़ा।
ख़म ठोंक बोहीं हमने जाड़े को धर पछाड़ा।
तन फेर ऐसा भबका, जब खाये तिल के लड्डू॥4॥

कल यार से जो अपने, मिलने के तईं गए हम।
कुछ पेड़े उसकी खातिर खाने को ले गए हम।
महबूब हंस के बोला, हैरत में हो रहे हम।
पेड़ों को देख दिल में ऐसे खुशी हुए हम।
गोया हमारी ख़ातिर तुम लाये तिल के लड्डू॥5॥

जब उस सनम के मुझको जाड़े पे ध्यान आया।
सब सौदा थोड़ा थोड़ा बाज़ार से मंगाया।
आगे जो लाके रक्खा कुछ उसको खु़श न आया।
चीजें़ तो वह बहुत थीं, पर उसने कुछ न खाया।
जब खु़श हुआ वह उसने जब पाये तिल के लड्डू॥6॥

जाड़े मंे जिसको हर दम पेशाब है सताता।
उट्ठे तो जाड़ा लिपटे नहीं पेशाब निकला जाता।
उनकी दवा भी कोई, पूछो हकीम से जा।
बतलाए कितने नुस्खे़, पर एक बन न आया।
आखि़र इलाज उसका ठहराए तिल के लड्डू॥7॥

जाड़े में अब जो यारो यह तिल गए हैं भूने।
महबूबों के भी तिल से इनके मजे़ हैं दूने।
दिल ले लिया हमारा, तिल शकरियों की रू ने।
यह भी ”नज़ीर“ लड्डू ऐसे बनाए तूने।
सुन-सुन के जिसकी लज़्ज़त, घबराए तिल के लड्डू॥8॥

शब्दार्थ
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