जाड़ोॅ जाड़ा सें थरथर कांपै / अनिल कुमार झा
जाड़ोॅ जाड़ा सें थरथर कांपै
ओढ़े न पारै छै चद्दर रजाय,
कखनू कोकड़ी के ओढ़ै जे लागै
हाय रे विधाता भिंजी-भिंजी जाय।
टटका सीतोॅ से लोर मिलै छै
जानौं नै केना कॅ मोॅन खिलै छै,
सुरूज के हाँसै लेॅ ज़ोर जे लगावै
देहोॅ संग बोली हर-हर हिलै छै।
जानौं न केना के बितलै ई रात हो
जिनगी तेॅ बन्हली बथानी के गाय,
जाड़ोॅ जाड़ा से थर-थर कांपै
ओढ़ेॅ न पारै छै चद्दर रजाय।
रातें राती में फुसकी कहलकै
जोड़ी के देही से देह सुलगैलकै,
बात नै मानला पर धमकी दै छै
चारोॅ दिशा से बताय बहैलकै।
केना के बचियै, मरियै की कहियै
केकरा हो, बोलोॅ न बाप न माय,
जाड़ोॅ जाड़ा से थर-थर कांपै
ओढ़ै न पारै छै चद्दर रजाय।
दिने के आस छै जखनी ऊ ऐतोॅ
गरमीं सें देहोॅ के तब्बे मिलैतोॅ,
साँसोॅ के आसोॅ पर रोकनेॅ राखै छै
आसरा एक्के के वहीं बचैतोॅ।
लेकिन मेघानोॅ दिन, रोपलोॅ बिरूआ
लागै की जित्तेॅ देतै खवाय,
जाड़ोॅ जाड़ा सें थर-थर कांपै
ओढ़ै न पारै छै चद्दर रजाय।