जाता कभी स्वभाव न खल का,
कितना ही सत्संग करे वह सुजन साधु निर्मल का।
मिश्री मिश्रित पय से सिंचन करो वृक्ष के थल का,
किन्तु स्वाद कड़वा ही होगा सदा नीम के फल का।
चाहे अमृत ही बन जाए अंजन नेत्र कमल का,
किन्तु उलूक नहीं कर सकता दर्शन रवि मंडल का।
नापाक प्रेम से लौ देकर मधु प्रसून कोमल का,
पर फुफकार छोड़ते ही उगलेगा सार गरल का।
काला कम्बल खूब धुला लो रंग न होता हल्का,
चिकने घट पर नहीं ठहरता एक ‘बिन्दु’ भी जल का।