जाति की पहचान / रूपम मिश्र
मुझे तुम न समझाओ अपनी जाति को चीन्हना श्रीमान
बात हमारी है हमें भी कहने दो
तुम ये जो कूद-कूद कर अपनी सहूलियत से मर्दवाद के नाश का बहकाऊ नारा लगाते हो, अपने पास रखो
कर सको तो बात सत्ता की करो, जिसने अपने गर्वीले और कटहे पैर से हमेशा मनुष्यता को कुचला है
जिसकी जरासंधी भुजा कभी कटती भी है तो फिर से जुड़ जाती है ।
रामचरितमानस में शबरी-केवट प्रसंग सुनती आजी सुबक उठतीं और
घुरहू चमार के डेहरईचा छूने पर तड़ककर सात पुश्तों को गाली देतीं
कोख और वीर्य की कोई जाति नहीं होती, ये वे भी जानतीं थीं
जो पति की मोटरसाइकिल पर जौनपुर से बनारस तक गर्भ में आई बेटी को मारने के लिए दौड़तीं रही
और घर के किसी मांगलिक कार्य में बिना सोने के बड़का हार पहने बैठने से इनकार कर देतीं हैं
सब मेरी ही जाति से हैं
चकबन्दी के समय एक निरीह स्त्री का खित्ता हड़पने के लिए, जिसने अपनी बेटियों को कानूनगो के साथ सुलाया और वो जो रात भर बच्चे की दवाई की शीशी से बने दीये के साथ साँकल चढाए जलती रहीं और थूकती रही इस लभजोर समाज पर
वो भी मेरी ही जाति से थीं
जानते तो आप भी बहुत कुछ नहीं हैं महराज
क्या जानते हैं हरवाह बुधई का लड़का, जिसे हल का फार लगा तो खौलता हुआ कड़ूँ का तेल डाल दिया गया
उसका चीख़कर बेहोश होना ज़मींदार के बेटों का मनोरंजन बना
और वही लड़का बड़े होने पर उसी परिवार के प्रधान बेटे की राइफ़ल लेकर भइया ज़िन्दाबाद के नारे लगाता है
मेरी लड़खड़ाती आवाज़ पर आप हंस सकते हैं क्योंकि आप नहीं जानते मेरी आत्मा के तलछट में कुछ आवाज़ें बची रह गई हैं जो एक बच्ची से कहती थीं कि तुम्हें कोई सखी-भौजाई ने बताया नहीं कि रात में
होंठों को दाँतों से दबाकर चीख़ रोकी जाती है जिससे कमरे से बाहर आवाज़ न जाए
हम जब ठोस मुद्दे को दर्ज करना चाहते हैं, तो उसे भ्रमित करने के लिए सिर से पैर तक सुविधा और विलास में लिथड़े जन जब कुलीनता का ताना देकर व्यर्थ की बहस शुरू करते हैं तो मैं भी चीन्ह जाती हूँ विमर्श हड़पने की नीति
मुझे आपकी पहचानने की कला पर सविनय खेद है श्रीमान
क्योंकि एक आदमीपने को छोड़ आपने हर पन पहचान
लिया जो घृणा के विलास से मन को अछल-विछल करता है
रोम जला भर जानना काफ़ी कैसे हो सकता है
जब रमईपूरा और कुंजड़ान कैसे जले, आप नहीं जानते
जहाँ समूची आदमियत सिर्फ़ घृणा, रसूख़, नस्ल और जाति जैसे शब्दों पर ख़त्म हो जाती है
अपने क़दमों की धमक पर इतराना तो ठीक है पर बहुत मचक कर चलने पर धरती पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है
तुम अपनी बनाई प्लास्टिक की गुड़ियों से अपना दरबार सजाओ, श्रीमान !
मन की कारा में आत्मा बहुत छटपटा रही है
मुझे अपनी कंकरही ज़मीन को दर्ज करने दो
जो मेरे पंजो में रह-रह कर चुभ जाती है ।