Last modified on 22 अप्रैल 2019, at 17:04

जाती है धूप उजले परों को समेट के / शकेब जलाली

जाती है धूप उजले परों को समेट के ।
ज़ख्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के ।

मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जानता हूँ हर्फ़ नहीं ये सिलेट के ।

दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के ।

फ़ौवारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के ।

इक नुक़रई खनक के सिवा क्या मिला शकेब
टुकड़े ये मुझसे कहते हैं टूटी पलेट के ।