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जाती है धूप उजले परों को समेट के / शकेब जलाली
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जाती है धूप उजले परों को समेट के ।
ज़ख्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के ।
मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जानता हूँ हर्फ़ नहीं ये सिलेट के ।
दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के ।
फ़ौवारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के ।
इक नुक़रई खनक के सिवा क्या मिला शकेब
टुकड़े ये मुझसे कहते हैं टूटी पलेट के ।