जादूगरनी / देवेंद्रकुमार
धन्नो
जादूगरनी
जो छू जाए
जिसे छू दे
देख ले हंसकर
उसी को हो जाता है
‘कुछ’
अलस्सुबह
मारती है मंतर।
यहां से वहां तक
छोटी-बड़ी सलवटें
जतन से निकालकर
संवारती उंगलियों से
खींचती खुद पर
(जहां भी जगह बच रही हो)
चकरघिन्नी!
-जवाब हर पुकार का
चिड़चिड़ी उबासी की
गुहार का!
खींचती है रस
मैले कपड़ों से
जूठे बरतनों से
यानि किस-किस से नहीं!
छलकने लगता है
कपड़ों पर, बालों पर
हाथों पर, गालों पर।
धन्नो है जोंक
खुद से खुद तक लम्बी
चूस जाती है सब
गंद एक बूंद नहीं गिरता बाहर।
बोलती है
हवा बतास से
उदास जली घास से,
बात दिन की नहीं
करती है रात में-
हलचलें सारी सुलाकर
चुकाकर
बिछाए गद्दा
थकान का,
चित लेटी
पीती है चमकीली ठंडक
आकाश की
बेझिझक जी भर/अपलक।
सुख
भरी-भरी सांसों का
झुलाता है,
नींद बेचारी
पस्त हिम्मत, उनींदी
झांकती है
चढ़ मुंडेरी
हसरत भरी आंखों से
आंखों में।
वहां किसी की गुजर नहीं
-धन्नो
इस वक्त ही तो
धन्नो है।