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जानकी रामायण / भाग 19 / लाल दास

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चौपाई

सुनु राधाक मिलन उद्वाह। कयल कृष्ण गन्धर्व विवाह॥
एक दिन अबयित रहथि बथान। कर दोहनी संग नहि आन॥
प्रथम मिलन राधासौं भेल। परिचय अपन-अपन दुहु देल॥
रूप परस्पर युगल निहारि। प्रीति बढ़ल नहि रहल सम्भारि॥
कहलन्हि सुनितहि छल छी नाम। देखि भेलहुँ हम पूरण-काम॥
रसमय कथा करथि अवधान। वशीकरण वर मंत्र समान॥
भेल परस्पर प्रेम सचेत। कयलनि कुंज मिलन-संकेत॥
अयला चल जँह गाय बथान। लागल मेघ प्रबल पवमान॥
नन्द महरकाँ बड़ भय भेल। राधाकाँ तहँ आज्ञा देल॥
हमरा घर हिनका पहुँचाउ। तखन अहूँ अपना घर जाउ॥
सुनि राधा प्रमुदित ततकाल। अयिली कुंज संग गोपाल॥
तरुण अवस्था दुहुक प्रकाश। कयल दुहू मिलि हास-विलास॥

दोहा

हरि रुचिसौं अयला तखन चतुरानन ततकाल।
राधाकृष्णक चरणसे स्तुति नति कयल विशाल॥

चौपाई

तेहिखन कृष्णक पाबि निदेश। रचल कुंजमे भवन-विशेष॥
मणिमय वेदी कंचन धाम। तहिमे बैसला राधा-श्याम॥
होम द्रव्य मँगबाओल ढेर। भेल हुतासन ज्वलित सबेर॥
वेदमंत्र पढ़ि-पढ़ि सविधान। कयल विधाता कन्यादान॥
कृष्णक माला राधा लेल। राधा जयमाला निज देल॥
नभसौं सुमनक वर्षा भेल। ब्रह्मलोक ब्रह्मा घुरि गेल॥
ई रहस्य जानल नहि आन। केवल चतुरानन मन जान॥
कयल कृष्ण राधाक शृंगार। लगला करय बिहार उदार॥
भेल ततय अति प्रेम प्रकाश। रास विलास हास उल्लास॥
अति रहस्य लीला विस्तार। के कहि सक ईश्वरक विहार॥
वृन्दावनमे पाबि एकान्त। रास प्रकाश कयल मन शान्त॥
जत छली बढ़ल मदन कृत आगि। सकल मिझायल रहल न जागि॥
प्रेम-प्रवाह बढ़ल विस्तार। राधाकाँ रहि हो नहि द्वार॥
चन्द्रावलि ललिता सखि संग। कृष्ण मिलय नित जाथि उमंग॥

दोहा

कृष्णहुकाँ राधा बिना कौखन हो नहि चयन।
गली-गली बन-बन फिरथि विरह व्यथेँ गुण अयन॥

चौपाई

कौखन करथि जमुन घटवारि। कौखन पनिघट निकट निहारि॥
कौखन दूध-दही लेथि दान। गोपिक संग करथि घमसान॥
कौखन गोपिक भवन नुकाय। खाथि नित्य नवनीत चोराय॥
देखि-देखि गोपी पकड़य धाय। इहो धरथि भरि अक लगाय॥
नहयित नारि निहारि स्वदीठ। मलथि जाय पाछसौं पीठ॥
कौखन चीर-हरण कय लेथि। गोपीजनकाँ बड़ सुख देथि॥
खन गोपिक छाती धय धाय। कहथि दिअ लेल गेन्द चोराय॥
कौखन मोहथि मुरलि बजाय। खन बिहरथि बंसीवट जाय॥
कौखन मिलि हरि गोपिक संग। रास विलास करथि रति-रंग॥
कृष्णक प्रेम-विवस सभ भेलि। काम-पाशसौं बान्धलि गेलि।
कृष्णहिमे मन रहय सदाय। गुरुजन लाज देल बिसराय॥
मदन मतल कमलायत नयन। हरि बिरहेँ ककरहु निहि चयन॥

दोहा

बुझय न राति भयानक वन जन्तुव नहि भीत।
जतय कृष्ण तहि जाय नित बुझय न दुख नहि शीत॥

चौपाई

लागल कृष्णहुँकाँ उच्चाट। तकयित फिरथि घाट बन बाट॥
राधा-रूप देखथि जेहि काल। प्रेम-प्रभाव दुखित गोपाल॥
बढ़ल परस्पर दुहुकाँ प्रेम। के कहि सकय पुरातन नेम॥
राधाकाँ प्रेमक अभिमान। कौखन करथि कृष्णसौं मान॥
तनिके बिनु हरिकेँ नहि चयन। जाथि छनहि छन राधेक अयन॥
कति विधि बिनती करथि मनाय। प्रीति-विवश संकोच बिहाय॥
राधादिक जे गोपकुमारि। हरि-रस-विवश सकल सुकुमारि॥
सभ जनि कृष्णक तन्मय भेलि। असन बसन भवनो भुलि गेलि॥
फिरथि विपिन हरि-दर्शन हेतु। छटल टुटल संकोचक सेतु॥
गृहमे गुरुजन राखथि बन्द। हरिसैं जाय मिलथि स्वच्छन्द॥
योगियहुकाँ जे नहि अभ्यास। से गति गोपीकाँ अनयास॥
पूरण ब्रह्म धयल नर देह। तनिकासौं लागल बड़ नेह॥
ब्रह्मानन्दक सम सुख मूल। ब्रजवनिताकेँ भेल अमूल॥
गोलोकक कृष्णक सभ दार। पृथिवीमे लेलनि अवतार॥

दोहा

पूर्वहि मिथिलानगरमे सीता परिणय काल।
हरिकेँ नारि निहारि सभ प्रेमेँ विवश बिहाल॥

सोरठा

देखि प्रीति रघुवीर सकल नारिकेँ देल वर।
एखन धरू सभ धीर द्वापरमे सभसौं मिलब॥

चौपाई

एकनारी व्रत एहि अवतार। तेँ अहँसौं नहि करब बिहार॥
द्वापर कृष्ण हयत मोर नाम। ततय हयब सभ जनि मोर बाम॥
सैह नारिगण ब्रजमे आबि। सुख पाआल हरिसन्निधि पाबि॥
वालवृद्ध नर नारि जतेक। पशु पक्षी सभकाँ ई टेक॥
बिनु कृष्णक देखलेँ नहि चयन। कृष्णार्पण तन मन धन अयन॥
कि कहब सभक विलक्षण नेम। प्राणोपरि कृष्णक पद-प्रेम॥
सभ जनि कृष्णक किंकर भेलि। ब्रह्मानन्दक सुख लय लेलि॥
भेल जगत भरि चरित प्रकाश। सुर मुनि आबथि मन उल्लास॥
सुनल विभीषण कथा उदार। राम लेल कृष्णक अवतार॥
उत्कंठित पुष्पक असबार। चलला नारिसहित परिवार॥
अयला चल ब्रजमे स्वच्छन्द। कृष्ण दरशसौं अति आनन्द॥
पृथक-पृथक सभजन सह वाम। कृष्ण-चरणमे कयल प्रणाम॥
आशिष देल कृष्ण हरषाय। रहु सभजन आनन्द सदाय॥
सूर्पनखा जखना पगु धयल। हँसला कृष्ण कथा किछु कयल॥
के तोर काटल नासा कान। के कयलक एत गोट अपमान॥
सूर्पनखा कहलक कर जोड़ि। आबहुँ क्रोध दिअ प्रभु छोड़ि॥
अपनहि देलहुँ समुचित दण्ड। हमर छोड़ओल प्रकृति प्रचण्ड॥
युवा वयस हम छलहुँ उदण्डि। नाथ छोड़ाओल भल पाखण्डि॥
खरदूषण रावण मारीच। चिन्हलक अहँकाँ जे नहि नीच॥
अरि भावेँ से मारल गेल। अपनेक नासनसौं गति लेल॥
हम कटु कहल क्षमिय अपराध। करु भवसागर पार अगाध॥
ई कहि प्रेमे कनयित शोर। लागल बहय नयनसौं नोर॥
मन्दोदरी विभीषण प्रभृति। सभजन सविनय कहल स्वप्रवृति॥
प्रभु हमरा सबहिक बड़ दोष। क्षमा करिय राखी जनु रोष॥
अयलहुँ सभ जनि आस लगाय। राम रूप दिअ दरश कराय॥
देखि अलौकिक सबहिक प्रीति। कृष्ण कृपा कयलनि भल रीति॥
अपने रामरूप वनलाह। हलधर लक्ष्मण भेष भेलाह॥
राधा भेलिह जानकी रूप। पूर्वक लीला बनल अनूप॥
सभजन एकटक ध्यान लगाय। पिउल दरश-रस-अमृत अघाय॥
विनय प्रणाम कयल सविधान। देल राम इच्छित वरदान॥

दोहा

कृपासहित सभकाँ कहल सुचित जाउ निज देश।
अयला लंका मुदित मन छटल मनक कलेश॥