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जानकी रामायण / भाग 25 / लाल दास

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चौपाई

पूर्व कयल रह हरि स्वीकार। ज्ञान कहब द्वापर अवतार॥
देल कृष्णकाँ से मन पारि। बिहुँसि कहल विभु देव मुरारि॥
नारिक स्वर अति कोमल तान। सीखू प्रथम ततहि मुनि गान॥
जाम्बवतीकाँ कहल बुझाय। मुनिकाँ दिअ किछू गान सिखाय॥
हरि आज्ञासौं से मन लाय। देलनि साम प्रभेद जनाय॥
किन्तु राग नहि रागिनि आब। रहथि पृथक अभिमान प्रभाव॥
एक वर्ष शिक्षा से देल। रहल कसरि सांग नहि भेल॥
तखन सत्यभामा गृह जाय। सीखय लगला हरि रुचि पाय॥
ततहु गेल सम्बत्सर बीति। मुनिकाँ नहि आयल भल गीति॥
रुक्मिणिकाँ हरि कहल मँगाय। नारदकाँ दिअ गान सिखाय॥
से पुनि कृष्णक पाबि निदेश। मुनिकाँ लय गेलिह गृह-देश॥
सिखबय लगलिह सुन्दरि गान। नारद गाबि उठाबथि तान॥
खसवथि स्वर नहि रहनि ठेकान। सकल अनर्गल विफल निदान॥
सुनि नारदक ज्ञान अधलाह। दासी हँसि दुसि कहय बताह॥
नारदकाँ हो हानि गलानि। लज्जित रहथि अपटुता मानि॥
मुनि मनमे बड़ मानल खेद। कहल एकान्त कृष्णकाँ भेद॥
कयलनि हरिक विनय मन लाय। अहमिति इर्षा गेल मेटाय॥
राग द्वेष मनसौं सभ गेल। तखन कृष्ण अपनहि सिख देल॥
हरि प्रेरित रागिनि अयिलीह। नारदकाँ सभ प्राप्त भेलीह॥
राग रागनी सकल प्रकार। नारदकाँ कयलनि स्वीकार॥
अयलनि तखन विलक्षण गान। गायकमे मुनि भेलाह प्रधान॥
गाबथि नारद उत्तम साम। हरि-पद मन-मन करथि प्रणाम॥
कयल प्रशंसा विभु भल रीति। आयल नारद अहँकाँ गीति॥
सुनि मुनिकाँ भेल हर्ष अपार। चल गेला बैकुण्ठक द्वार॥
सुनबय लगला हरिकाँ गीति। भेल विष्णुकाँ सुनि अति प्रीति॥
कहल विष्णु सभ दिन मुनि आउ। रोक हयत नहि गीति सुनाउ॥
सुनि नारद मुनि मुदित भेलाह। वीणा लय नाचय लगलाह॥
तुम्बुरूसौं भय गेल मिलाप। दुहु मिलि गाबथि कति आलाप॥
नारद गाबि बजाबथि ताल। फिरथि जगत हृदि हर्ष विशाल॥

दोहा

बीण वाद्य करयित सतत घुमयित तीनू लोक।
गबयित हरि-गुण फिरथि नित छटल दारुण शोक॥

सोरठा

भव जालक लग लाल भ्रमहु कदाचित जाह जनु।
अछि व्याधा कलि काल प्राणे लेत बुझाय धु्रव॥

॥इति लालदासकृते राधाकाण्डः समाप्त॥