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जानकी रामायण / भाग 2 / लाल दास

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अथ कथारम्भः

चौपाई

तमसातीर सुभग वन कुंज। मुनि बाल्मीकि रहथि तप पुंज॥
एक समय मुनि भारद्वाज। पुछलनि पदगहि हे ऋषिराज॥
रामायण शत कोटि अपार। ब्रह्मलोक में अछि विस्तार॥
अपनेक कृत चौबीस हजार। एहि जग में अछि सैह प्रचार॥
से सभ सुनल हमह मनलाय। पीवि सुधारस मन न अघाय॥
रामायण जे पारावार। तेहिमे रहल कथा जे सार॥
से हमरा प्रति मुनिवर कहिय। पुनि-पुनि चरण कमल हम गहिय॥
शिष्यक वचन सदय मुनि सूनि। हर्षित अपन नयन लेल मनि॥
तेहिखन हस्तामलक समान। स्मरण कयल शन कोटि प्रमान॥
सीता राम चरित जे भेल। से सभ मुनिकाँ मन पड़ि गेल॥
मन हर्षित नहि निज वश रहल। वाल्मीकि शिष्यक प्रति कहल॥
साधु-साधु अहँ भारद्वाज। रामायण मन पाड़ल आज॥
अहँक हृदय में बड़ आवेश। तेँ कहयित छी कथा विशेष॥
हमर कयल रामायण जैह। शत कोटिहु सौं लयलहु सैह॥
राम चरित शूभ मनुज समान। पद्य वनाय कयल हम गान॥
पद चौबीश सहस जे कयल। मर्त्यलोक में अछि से घयल॥
सीता चरित ततय जे रहल। गोपनीय ककरहु नहि कहल॥
इन्द्र आवि पुछलनि कय वेरि। कहल न हम तनिकाँ देल फेरि॥
वड़ रहस्य सीतोपख्यान। अँह छी परम भक्त विज्ञान॥
तेँ कहयित छी अहँ का आज। सनु मनदय मुनि भारद्वाज॥

दोहा

मूल प्रकृति सीता चरित, अद्भुत रतनक खानि।
अछि गोपित विधि भवन में, कहयित छी हित जानि॥

चौपाई

सीता त्रिगुण प्रकृति प्रधान। कारण सृष्टिक सैह निदान॥
स्वर्ग-तपक से सिद्धि स्थान। महती विद्या विद्या ज्ञान॥
ऋद्धि सिद्धि सभ गुणमयिवेश। निराकार पुनि गुणक न लेश॥
सकल सृष्टि में व्यापित रहथि। ज्ञानी तनिकहि चिन्मयि न हथि॥
कुण्डलिनी सृष्टिक आधार। जगत चराचर तनिक विहार॥
योगी जन तनिकहि धय ध्यान। होथि सुखीलहि तत्त्व ज्ञान॥
जखन-जखन हो धर्म्मक ग्लानि। पाप प्रचार शुभक हो हानि॥
तखन-तखन शक्तिक अवतार। दुष्ट निहत हो बारम्बार॥
प्रकृति पुरुष लक्ष्मी हरि जैह। सीता राम रूप थिक सैह॥
राम जानकी ज्योति स्वरूप। भेद रहित से युगल अनूप॥
राम रूप सीता सिय राम। कहल अभेद वेद सुखधान॥
हिनक तत्त्व बूझथि बुध जैह। काल ग्रास सौँ छूटथि सैह॥
यद्यपि सीताराम अचिन्त्य। थिकथि चिन्त्य पुनि से दुहू नित्य॥
सवहिक साक्षी अन्तर जान। सैह लोक कर्त्ता गुणवान॥
सकल चराचर भरणो करथि। सैह प्राण पुनि हरणो करथि॥
योगी जन जे पावथि सिद्धि। शक्ति जानकी योगे वृद्धि॥
षट्पद॥ नहि तनिकाँ अछि पाणि पाद पुनि गहथि छलथि से॥

नहि यद्यपि श्रुति नयन सुनथि पुनि सभ देखथि स॥
व्याप्त सकल ब्रह्मण्ड रहथि सभकाँ जानथि से।
क्यौ तनिकाँ नहि लखथि यदपि कति चरित करथि से॥
परब्रह्म जनि कहि कहथि ज्ञानी बुध जन जानि।
सैह सगुण मूरति युगल सीता राम वखानि॥


जानकी रामायण

सोरठा

रूप रहित पुनि रूप, घयलन्हि जेहि कारण युगल।
कहयित छी अनुरूप, लोकक हित अद्भुत चरित॥

चौपाई

कहलनि बालमीकि ऋषिराज। राम चरित सुनु भारद्वाज॥
सीताराम जनम जेँ हेतु। कहयित छी भव सागर हेतु॥
तेहि मे प्रथम राम अवतार। सुनु कारण पावन सुख सार॥
ईक्ष्वाकुक कुल वारिधि चन्द। रहथि त्रिशंकु नृपति गुणकन्द॥
तनिक प्रिया पद्मावति नाम। अम्बरीष जननी गुणधाम॥
शेष शायि हरि इष्टक चरण। अर्चन करथि रहथि तनि शरण॥
गन्धादिक नाना उपहार। लय पूजथि हरि करुणागार॥
नित्य करथि पूजन एहि रीति। दश हजार वत्सर गेल वीति॥
विष्णु भक्त सभकाँ से नित्य। तुष्ट करथि दय दय कति वित्त॥
एकादशि आदिक व्रत नेम। हरि हित करथि सदा सुख प्रेम॥
एक समय से सति सुखबास। हरिवासर मे कय उपवास॥
पति संग शयन कयल हरि निकट। स्वप्ने तनि तट हरि भेल प्रकट॥
दरशन दय नारायण कहल। हे भद्रे कति व्रत अहँ सहल॥
मांगू मांगु इछित अछि जैह। हम प्रसन्न एखनहि देव सैह॥
सुनि हर्षित रानी तँह कहल। मनमें जे अभिलाषा रहल॥
हे जगदीश धन्य हम आज। अपने कयल कृपा निर्व्याज॥
चक्रवर्ती राजा विख्यात। निरत स्वधर्म्म सतत् सुचि गात॥
अहँक भक्त गुण मंत सुपूत। पुत्र होथि एकटा उद्भूत॥
देल जाय एतवा वरदान। सुनि तथास्तु कहि पुनि भगवान॥
देल एक फल तनिका हाथ। रानी मुदित लगाओल माथ॥
अन्तर्ध्दान भेला री रंग। रानिहुँकाँ भेल निद्रा भंग॥
वर मन पड़ल देखल फल हाथ। कयल विर्सजन मानस क्वाथ॥
राजा काँ रानी सभ कहल। लय आज्ञा फल भोजन कयल॥
गर्भवती भेलिह सम्पन्न। कालेँ सुत कयलनि उत्पन्न॥
माइक कृत सुत से गुणधाम। अम्बरीष राखल तेँ नाम॥
भेल व्यतीत जखन किछु काल। अभिषेको कयलनि भूपाल॥
अम्बरीष भेला महराज। किन्तु कयल नहि राज्यक काज॥
देल राज्य मंत्री काँ सोंपि। तप आरूढ़ भेला पद रोपि॥
साहस कय निर्जन वन जाय। विधिसौँ नियम कयल समुदाय॥

दोहा

ध्यान सहित हृदि कमल में श्री नारायण मंत्र॥
मन एकाग्र दृढ़ भक्तिसौँ लगला जपय स्वतंत्र॥

चौपाई

एहि विधि वीतल वर्ष हजार। तखन कयल हरि तप स्वीकार॥
बड़ प्रसन्न भेलाह रमेश। अयला जतय रहथि अबधेश॥
नृपतिक भक्ति परीक्षा काज। कयल विष्णु किछु रूपक व्याज॥
एैरावत खगनाथ भेलाह। अपने इन्द्र रूप बनलाह॥
नृपसौँ कहल थिकहुँ हम इन्द्र। मन वाँछित फल देब नरेन्द्र॥
देखलनि नृपति इन्द्र छथि ठाढ़। कहलनि तति सौँ वचन सुगाढ़॥
हमर इष्ट छथि हरि सुरराज। वृथा अहाँ अयलहुँ की काज॥
अहँक हतु नहि तप हम करिय। इन्द्रपुरी अपने संचरिय॥
हरि प्रसन्न भेला दृढ़ जानि। रूप देखाओल निज सनमानि॥
तेहि खन रूप चतुर्भुज भेल। शंख गदादिक करमे लेल॥
पीताम्बर भूषण वनमाल। गरुड़ासीन भेला ततकाल॥
से देखि नृप काँ बाढ़ल हर्ष। स्तुति कयलन्हि मन बड़ उत्कर्ष॥
जय जगदीश सुमुख भगवान। अहँ बिनु हमर करत के त्रान॥
करिय कृपा हम जन अतिदीन। अपने दीनोद्धार घुरीन॥
दया करिय जन जानि दयाल। छुटत न अपने विनु भव जाल॥
हरि प्रसन्न कहलनि जे लेब। साघ-साघ हम सभ दय देब॥
नृप हर्षित कहलनि कर जोड़ि। नाथ मंगछो हम छल छोड़ि॥
मन बच कर्म सुभक्ति अभंग। श्रीपद कमल बसय मन भृंग॥
हम पृथिवी पाली भल रीति। सभकाँ विष्णु भक्त कय नीति॥
होम यज्ञ जग हो सभ काल। हरिजन सवहिक हो प्रतिपाल॥
देल जाय एतवा वरदान। अपने सुमुख रहू भगवान॥
सुनि नृप उक्ति परम एकान्त। एव मस्तु कहलन्हि श्रीकान्त॥